Handicraft In Rajasthan:
मंसूरिया:
कोटा से 15 किमी. दूर बुनकरों का एक गांव है, कैथून। कैथून के बुनकरों ने चौकोर बुनाई जाने वाली सादी साड़ी को अनेक रंगों और आकर्षक डिजाइनो मे बुना है तथा सूती धगे के साथ रेशमी धगे, और जरी का प्रयोग करके साड़ी की अलग ही डिजाइन बनाई है। साड़ी का काम बुनकर अपने घर मे खड्डी लगाकर करते है। पहले सूत का ताना बुना जाता है। फर सूत या रेशम को चरखे पर लपेटकर लच्छियाँ बनाई जाती है। धगे की लकड़ियों की गिल्लियों पर लपेटा जाता है, पिफर ताना-बाना डालकर बुनने का काम किया जाता है वर्तमान मे कोटा डोरिया साड़ी का निर्यात भी विदेशों मे किया जा रहा है।
ब्ल्यू पॉटरी:
जयपुर में ब्ल्यू पॉटरी निर्माण की शुरूआत का श्रेय महाराजा रामसिंह 1835-80 ई. है। उन्होने चूड़ामन आरै कालू कुम्हार को पॉटरी का काम सीखने दिल्ली भेजा आरै प्रशिक्षित होने पर उन्होने जयपुर मे इस हुनर की शुरूआत की। बाद मे कृपालसिंह शेखावत ने इस कला को देश-विदेश मे पहचान दिलाई। ब्ल्यू पॉटरी के निर्माण के लिए पहले बतर्नों पर चित्राकारी की जाती है, पिफर इन पर एक विशेष घोल चढ़ाया जाता है। यह घोल हरा काँच, कथीर, साजी, क्वार्ट्ज पाउडर आरै मुल्तानी मिट्टी से मिलाकर बनाया जाता है। चित्राकारी का प्रारूप तो बर्तनों पर पहले ही हाथ से बना लेते है, किन्तु यदि लाइनें खीचनी हो तो चाक, पर रखकर ही लाइनें खींची जाती है। ब्ल्यू पॉटरी के रंगों मे नीला, हरा, मटियाला और ताम्बाई रंग ही विशेष रूप से काम मे लेते है।
गलीचे और दरियाँ:
जयपुर और टांेक का गलीचा उद्योग प्रसि( है। सूत और ऊन के ताने-बाने लगाकर लकड़ी के लूम और गलीचे की बुनाई की जाती है। बुनाई मे जितना बारीक धगा और गाँठें होती है, गलीचा उतना ही खूबसूरत एवं मजबूत होता है। जयपुर के गलीचे गहरे रंग, डिजाइन और शिल्प कौशल की दृष्टि से प्रसिद्ध है। गलीचा महंगा होने के कारण आजकल दरियों का प्रचलन अध्कि है। जयपुर और बीकानेर की जेलो मे दरियाँ बनाई जाती है।ै जोध्पुर, नागौर, टोंक, बाड़मेर, भीलवाड़ा, शाहपुरा, केकड़ी और मालपुरा दरी-निर्माण के मुख्य केन्द्र है। जोधपुर जिल के सालावास गांव की दरियाँ बड़ी प्रसिद्ध है।
थेवा कला:
थेवा कला काँच पर सोने का सूक्ष्म चित्रांकन है काँच पर सोने की अत्यन्त बारीक, कमनीय एवं कलात्मक कारीगरी को ‘थेवा’ कहा जाता है। इसके लिए रंगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। थेवा के लिए चित्राकारी का ज्ञान आवश्यक होता ह।ै अलग-अलग रंगों के काँच पर सोने की चित्राकारी इस कला का आकर्षण है। थेवा कला मे नारी श्रृंगार के आभूषण एवं अन्य उपयोगी वस्तुएँ बनायी जाती है। विभिÂ देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी थेवा कला से अलंकृत की जाती है। थेवा कला से अलंकृत आभूषणों का मूल्य धतु का न होकर कलाकार की कला का होता है। इस कला मे सोना कम एवं मेहनत अध्कि होती ह।ै थेवा कला विश्व मे केवल प्रतापगढ़ तक ही सीमित ह।ै थेवा कला में कांच पर सोने का सुक्ष्म कारीगर पन्नीगर कहलाते ह।ै यह वर्क बनाने की कला पन्नीनरी कहलाती ह।ै जयपुर इसका प्रसिद्ध केन्द्र है।
ऊस्तांकला:
ऊँट की खाल पर सोने व चांदी की कलात्मक चित्रांकन व नक्काशी उस्तकला या मुनव्वती कहलाती है। .
बीकानेर का उस्ता परिवार इसके लिए विश्व प्रसिद्ध है।
हिस्सामुद्दीन उस्ता-दुलमेरा, लुणकरनसर बीकानेर द्धारा ऊंट की खाल पर स्वर्ण मीनाकारी के बेजोड़ कलाकार। 1986 में पदम्श्री।
मूर्तिकला:
संगमरमर की मूर्तियांे और कलाकृतियों के लिए जयपुर के लिए प्रसिद्ध है।
संगमरमर पर मीनाकारी का काम जयपुर में होता है।
संगमरमर पर पच्चीकारी का कार्य भीलवाड़ा में होता है।
संगमरमर का प्रमुख केन्द्र मकराना है। .
जयपुर के अतिरिक्त अलवर के निकट किशोरी गा्रम में भी संगमरमर की मूर्तियां बनती है।